ईश्वरीय वाणी वेदों का आर्यों अर्थात हिंदुओं को आदेश- जो तुझे दास बनाना चाहे उस वैरी के क्रोध को तू चूर-चूर कर दे,-भाग 1
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सनातन वैदिक धर्म के 28वें वेद व्यास भगवान महाऋषि श्रीकृष्ण द्वैपायन जी ने संकलित कर वेदों का वर्तमान स्वरूप हमें दिया। 28वें वेद व्यास भगवान महाऋषि श्रीकृष्ण द्वैपायन भगवान विष्णु के 21वें अवतार हैं।
ईश्वरीय वाणी वेद सनातन हिन्दू समाज के सर्वोच्च मान्य धर्मग्रंथ हैं। ईश्वरीय वाणी वेद साक्षात मोक्ष का मार्ग है और वेदों की अवज्ञा अर्थात वेदों से दूर होना व वेदों की बात ना मानना ही सम्पूर्ण कष्ट का कारण है। इन आदेशों का पालन न करने वाला मनुष्य इस जन्म में कष्ट एवं अगले जन्म में मनुष्य से हीन योनी में जन्म लेता है।
ईश्वरीय वाणी वेदों का पालन कर मनुष्य साक्षात ईश्वर के दर्शन करता है एवं मोक्ष पाता है।
तपो ष्वग्ने अन्तराँ अमित्रान् तपा शंसमररुषः परस्य।
तपो वसो चिकितानो अचित्तान् वि ते तिष्ठन्तामजरा अयासः॥
ऋगवेद 3.18.2
हे मनुष्य, देख, तेरे दो प्रकार के शत्रु हैं। एक तो आंतरिक और दूसरे बाहरी। तेरे अंदर जो कभी कभी निरुत्साह, निराशा, प्रमाद आदि दुर्बलता के भाव आते है, वे तेरे आंतरिक शत्रु हैं। इन आंतरिक शत्रुओं को तू संतप्त कर दे। साथ ही तू ऐसी वीरता दिखा कि दूसरे बाह्य हानिकारक शत्रुओं की कुत्सित भावनाएं कभी सफल न होवें। हे वीर, तू ‘वसु’ है, विवेकी है। तेरी तेजस्विता की किरणें चारों ओर विशेष रूप से फैलें। अर्थात हे मनुष्य, तू अपने आंतरिक और बाह्य शत्रुओं पर आत्मसंयम एवं पुरुषार्थ से विजय पा।
अक्ष्यौ नि बिध्य हृदयं नि र्बिध्य जिह्वां नि तृद्धी प्र दतो मृणीहि।
पिशाचो अस्य यतमो जघासाअग्ने यविष्ठ प्रति तं क्षृणीहि॥
अथर्ववेद 5.29.4
हे वीर, तू दुष्ट राक्षस की दोनों आँखें फोड़ दे। उसका हृदय चीर दे, जीभ काट डाल। दाँत तोड़ दे। जिस किसी भी पिशाच ने तेरे इस भाई को अपना ग्रास बनाया है, उसे तू पूर्णतया नष्ट कर दे अर्थात अपने शत्रुओं का नाश कर।